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उठो अब...

उठो अब...

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हे मनुष्य

बहुत हो गया

रुग्ण व्यवस्थाओं का 

भार ढोते जाना।


खोखली हो गयी है नींव

समाज की, चरमरा गया है

ढांचा।


सड़ गयी हैं मान्यताएं

पुरानी परम्पराएँ।

अरबों सालों से जल रहे 

सूरज में अब वो आग नहीं रही।


छेद हो गए हैं जगह-जगह

आसमान के शामियाने में।

गिरा दो तुम दीमक लगा 

समाज का ये पिछड़ा हुआ ढांचा।


सड़ी-गली रूढ़ियों का 

अंतिम संस्कार करके

मुक्त कर दो उन्हें और

बहा दो इतिहास की गंगा में।


पुरानी व्यवस्थाओं को

दफन कर दो

अपने पौरुष से

आग उगलता एक नया सूरज

टांग दो भविष्य के 

आसमान में।


एक नयी रौशनी लिख दो

अपनी आने वाली

नस्लों के नाम।


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