शब्द या खेल
शब्द या खेल
शब्दों से दिल लगा
लिया मैंने,
मोहब्बत भी की,
नफ़रत भी की,
कभी कभी मेरे
दिल को ही दुखा
दिया मैंने,
कभी बनकर मरहम ,
मेरे दर्द को सुलझाया
कभी बनाकर मेरे अपनों को
निशाना, दगा दिया मैंने,
बेशक ये मैं ना थी,
ना मेरा दिल था,
इन शब्दों ने ऐसा
फँसा दिया मुझे,
कभी एक पल में मुझे
अपनों से जुदा कर जाते है,
कभी अजनबी जुबान
बनकर महक बिखेर जाते है,
कहते है ख़ामोश
लबों पर शब्दों की
आवाज़ नहीं आती ,
पर ख़ामोशी को
बनाकर तीर,
निशाना बनाते है ये।
दूरियों की दीवार,
कभी क़रीब लाते है ये।
कभी मुस्कुराहट बनकर
बिखर जाते है ये।
हाँ शब्दों ने ग़ुलाम
बना लिया मुझे,
जिसके बिना एक
पल नहीं कटता,
बातें किये बिना
मन नहीं भरता ,
लगा कर जुबान
पर ताला,
दूर कर दिया मुझे।
हाँ शब्दों ने बेरहम
बना दिया मुझे।