Unlock solutions to your love life challenges, from choosing the right partner to navigating deception and loneliness, with the book "Lust Love & Liberation ". Click here to get your copy!
Unlock solutions to your love life challenges, from choosing the right partner to navigating deception and loneliness, with the book "Lust Love & Liberation ". Click here to get your copy!

पौधा

पौधा

1 min
421


मैं भी कभी था नन्हा पौधा,

दो-दो पत्ती वाला।

देख प्रकाश सुबह की लाली,

उठा मैं ऊपर मतवाला।


चारों तरफ बांह फैलाए,

अगड़ित शाख बढ़ी।

हरा-भरा तरु फल -फूलों से,

मानों धाक बढ़ी।


चिड़िया चहक -चहक कर गाईं,

मुझमें नीड़ बनाईं।

पाल पोस शिशु अपना इसमें,

कितने वंश बढ़ाईं।


कितने ही वनचर-थलचर,

यहीं पे आश्रय लेते थे।

कोयल कूका करती थी,

गीत भ्रमर भी गाते थे।


पंथी आकर विरमाते,

थकन यही मिटाते थे।

बैठ यहीं शीतल छाया में,

फल चाव से मेरा खाते थे।

कितनी ही ऋतुएं बदलीं,

साल महीने बदल गए।


कितने ही पतझड़ आए,

फिर कोपल फूटे नए-नए।

खड़ा यहीं अपलक तप करते,

सृष्टि बदलते देखा।


आए कितने नए यहां पर,

कितनों को जाते देखा।

वृद्ध हुआ तन क्षीण हुआ अब,

कृषकाय हुई यह काया।


खड़ा ठूठ अब देख रहा हूँ,

भव सागर की माया।

पूरव मे जिमि अरुण भोर का,

नव ऊर्जा ले आता।


पश्चिम में फिर क्षीण लाल हो,

क्षितिज में जा छिप जाता।

उसी सृष्टि के नियम का कायल,

मैं भी अब बेजान खड़ा।


देख रहा हूं नई पौध को,

ले नई शाख परवान चढ़ा।

पंच तत्व की बनी सृष्टि यह,

लीन उसी में हो जाती।


नव सर्जन कर नित नूतन,

नव विहान ले आती।

नियम यही प्रकृति का होता,

आया यहां जो जाएगा।


हरा -भरा जो आज यहां पर,

कल ठूंठ छूंछ हो जाएगा।


Rate this content
Log in

Similar hindi poem from Abstract