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रिश्तों का पहाड़

रिश्तों का पहाड़

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अब तो हर बीतते 

दिन के साथ ये डर 

मेरे मन में बैठता 

जा रहा है

कि जब तुम अपने  

प्रेम के रास्ते में आ 

रहे इन छोटे मोटे  

कंकड़ों को ही पार 

नहीं कर पा रही 

हो तो


तुम कैसे उन रिश्तों 

के पहाड़ को लाँघ कर 

आ पाओगी सदा के 

लिए पास मेरे

अब तो मेरे आँसुओं

के जलाशय में भी 

तुम अपना चेहरा 

देख खुद को सहज 

रख ही लेती हो


वो तुम्हारा सहजपन 

मुझे हर बार कहता है

कि तुमने शायद कभी 

मुझे वो प्रेम किया ही 

नहीं क्योंकि

जिस प्रेम में प्रेमिका 

दर-ओ-दीवार को लाँघ 

अपने प्रेम का वरण 

नहीं करती है

वो प्रेम कभी पुर्णता 

के द्वार में प्रवेश नहीं 

कर पाता है !


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