इश्क
इश्क
उलझी हुई थी मेरी दुनिया
कुछ यूं अब ये सुलझ गई,
सब रुसवा था तेरे बिना
अब दुनिया मेरी बदल गई।
सांझ ढले तुम याद आए
भोर होने तक आंसू भी बहे,
किस पहर में यूं खोया रहा
तुम ही नजर मुझे आते गए।
हाथ थामे चले थे हम तुम जहां
वो किनारा बेजां नजर आया,
जिस शहर में हंगामा बरपा था
वो अब बेजुबान नजर आया।
ये इश्क गलियों में पनपा था
फिर तेरे घर पर पहरा देखा,
घर की दीवारें हम लांघ गए
शायद मेरा मिलना जरूरी था।
दुनिया के रस्म रिवाजों में अब
मोहब्बत को धूमिल होते देखा,
एक रोज़ मोहब्बत होगी फिर से
पर उसमें भी तुमको पाया था।।