हर्फ़-ए-इज़हार लम्हा हमारा
हर्फ़-ए-इज़हार लम्हा हमारा
हाँ तूने इज़हार हर पल किया
यूं मैंने भी इकरार एक पल किया,
गर धड़कनों कि गुंज़ ने इंकार किया
तो क़्या करूं लफ़्ज़ ने न साथ दिया,
बेतहाशा एहसास जुड़ा तुझसे ही
हताशा तेरे नासूर से मिला तुझसे ही,
तेरी सांसों ने साहारा अपना दिया
नेक-दिल में आश्रा मुसलसल मिला,
हूं तो गुनहगार मैं खेली ज़ज़्बातों से
हूं पनाहगाह में भुली अल्फ़ाज़ो से,
न टुटती इमारत तौहीन की
न दरिया बंज़र , न वक़्त शाद दिया,
मिल जाए ऐसी ज़हर-आब मुझे
मिटा जाऊं माज़ी के तमाम दाग़ तेरे,
वो लम्हा था ग़म-ए-इज़हार का
वो शम्अ था शब-ए-दीदार का,
फ़कत तेरे उस पाक़ एहसास में
हर ग़म अफ़्सुर्दा भूलूं तुझमें,
तेरे उस लफ़्ज़ से रू-ब-रू हुई
इश्क़-ए-रूहानी में गुम हुई,
एक अज़ीम जुस्तजू मिल गया
अनेक अज़ीज़ सुकून मिल गया,
क़्या बोलूं तेरी बेशूमारी उल्फ़त को
क़्या लिखूं तेरी खुमारी मन्न्त को,
यकीं कर बाक़ी एक हर्फ़ मेरे दामन
निस्बत की तालिम तू ही मेरे जानम,
सलामती की दुआ अब तुझसे तुझ तक है
मुक़म्मल मुक़ाम बस तुझसे तुझ तक हैं,
मेरे दिल-ए-दर पे भी निशान तेरे गहरे है
जरूर ही वो लफ़्ज़ पे कामिल के पहरे हैं,
हर पल पल इज़हार कमिल-तरिन किया
एक पल इकरार शिकस्त-फरिश्ता किया !