ये ज़िन्दग़ी अपनी
ये ज़िन्दग़ी अपनी
शम-ए-क़ुश्ता है ये ज़िन्दग़ी अपनी,
ख़बर कुछ नहीं कि ये बेखुदी अपनी,
तवज्जो-ए-यार नहीं थी हासिल कभी,
और अब देखते हैं वो बेरुख़ी अपनी।
अयाँ है मंज़िल, पर ग़ैब-ए-ज़ादा,
देखते हैं हम ख़नदारु बेक़सी अपनी,
अश्क़ों से पाया है फिर तर दामन हमने,
ढूंढते हैं फिर वो दीद-ए-ख़ुशी अपनी।
वो हैं दीग़र, पर नज़ारा नहीं होता मुझे,
किस्से करें बयान, ये वामानदगी अपनी,
दिल तो कहे है कहें हाल-ए-दिल उनसे हम,
पर अल्लाह-अल्लाह ! के ये ख़ुदी अपनी।
तक़सीर में हम हैं, और ये तेरा चर्चा,
ख़ूब ये काविश-ए-शादाबी अपनी,
अहल-ए-नज़र को तो है इक दिल सीने में,
पर क्या हो कि धड़कनें मुर्दुमी अपनी।
वो देता है ज़ख्म तो क्या गम्माज़ हों,
यक़ता है जहाँ में ख़ु-ए-नेकी अपनी,
यूँ तो है दीग़र, रौशनी हर सम्त इलाही,
पर दिल में है ख़्वाहिश-ए-तीरग़ी अपनी।
मयस्सर है साग़र, पर प्यास न बुझने दें,
वल्लाह! ये हसरत-ए-तिश्नग़ी अपनी।