वो बरसात ...
वो बरसात ...
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बारिश की सौंधी ख़ुशबू
उसे किसी भी
इत्र से ज्यादा पसंद थी,
घंटों बैठ मेरे साथ
बरसात को निहारा करती
पानी का धरती पर
गिरना और फिर
उसी मे मिल जाना
उसे फिलोस्फिकल लगता,
टप टप पत्तों से झरते
मोती से
अपनी अंजुरी भर
मुझ पर लुटाती ,
कभी अपने बालों को
गीला कर
मेरे एहसासों को भिगो देती,
कभी यूँही
मेरे कंधे पर सर रख
अनगिनत बातें करती।
पर अब न वो है
न मेरे शहर मे वो बरसात।
काश! वो बरसात
लौट आये
काश! वो फिर
अपनी कागज़ की
कश्ती में कहीं से आ जाये
और भिगो दे मेरे
सुप्त एहसासों को!