कोणार्क
कोणार्क
तेरहवीं सदी के समाज के गवाह हैं
कोणार्क के पत्थर
गवाह हैं उस वक़्त के
शहंशाहों और लोगों के दिलों की
धड़कनों के।
कोणार्क के पत्थर
आज भी गाते हैं, नाचते हैं
हमसे बतियाते हैं कोणार्क के पत्थर।
वक़्त बताते हैं कोणार्क के पत्थर
सिर्फ़ बताते ही नहीं
पहचानते भी हैं वक़्त की नब्ज़
पहचानते ही नहीं
बयान भी करते हैं
स्थपतियों की अंदर की दुनिया के अक्स।
कोणार्क के पत्थर
रक्कासाओं की थिरकनों का अर्थ हैं
अर्थ हैं उनकी कलाओं और विवशताओं का।
आखेट करते हैं
पूजा-वंदन करते हैं
काम-क्रीड़ा करते हैं
कोणार्क के पत्थर।
इन पत्थरों की ज़ुबान
वर्णों में नहीं
दृश्यों, छवियों और धुँधले हो चुके रंगों में समाई है।
कोणार्क के पत्थर
सूर्य का आराधन हैं
आराधन हैं मनुष्य की
उस हर गति का
जो जीवन-चक्र की धुरी से जुड़ा एक आरा है
यह पत्थर
अपनी पहचान खोजती
स्त्रियों का
एक ख़ामोश बयान हैं।