पल पल दिल के पास वो रहती है.......मेरी माँ
पल पल दिल के पास वो रहती है.......मेरी माँ
कुछ बात है ख़ास इस पगडण्डी मेंं
सूना है मेरी माँ दौड़ा करती थी यहाँ
अपने बचपन में इस पर झूमती हुई
आती जाती हवाओं से बातेंं करती
कभी पाठशाला, कभी बाज़ार।
नानी को कहते सुना है मैंने कई बार
नन्ही सी मेरी माँ लहँगा लहराते हुऐ
इस पगडण्डी को झाड़ते दौड़ती थी
तभी सोचूँ इतने बरसों के बाद भी
इतनी साफ़ सुथरी क्यों है ये मिट्टी।
जब थोड़ी बड़ी हुई मेरी माँ तब कहते हैंं
उसने कई फूल और फल के पेड़ लगाऐ,
सुबह सुबह उगने वाले कुछ फूल वह
सूरज की पहली किरण के साथ
घर के भगवान् को अर्पण करती
और बाक़ी रंगों कोे एक धागे में पिरोकर
अपने और बहनो के बालों में जड़ देती।
जब दुल्हन बन, इन पेड़ों और फलों को
छोड़ चली थी मेरी माँ, कहते है सचमुच
बहारोंं ने फूल बरसाऐ थे, इस पगडंडी पर
जाते जाते कुछ यादें, काड़ी, कलम,
ले चली थी माँ, जो आज भी मेरे शहर
के छत पर, कुण्डों में हर रोज़ खिलते हैंं।
शहरी दीवारों की खोऐ हुऐ जंगल में,
कुछ वहाँ के भगवान को और कुछ
मेरी अर्धांगी के बालों में और कुछ
मेरी छोटी सी बिटिया के नन्हे से सर पर
खिल खिल कर सजते हैंं और
मुझको जीने का नया राग सिखाते हैंं।
गाँव में आज भी जब इन पेड़ों को देखता हूँ
मेरी माँ मुस्कुराती है इन लहराते पत्तों में,
जब कहती है मेरी मासी, तेरी माँ और मैं
ख़ूब फल खाते थे इन पेड़ों के तोड़कर,
तब तो वो माँ सी ही लगती है, और मैं जब
इन्हींं फलों को तोड़कर चखता हूँ तब,
यूँ लगता है की माँ अपने हाथों से
मुझको प्यार से, दुलार से खिला रही है।
जब चलता हूँ मैं आज इस पगडंडी पर और,
इन हवाओं को भरता हूँ अपनी साँसों में,
उसके आँचल की महक आज भी आती है,
और माँ के साँसों के सुक़ून का एहसास,
होता ज़रूर है इस हवाओं की अदा में,
इसीलिऐ तो कोसोंं दूर खिंचा आता हूँ मैं,
दूर आकर भी, अचानक पास हो जाता हूँ।।
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