सब कविता ही समझेंगे।
सब कविता ही समझेंगे।
डरा हुआ हुँ खुदसे या दुनिया ज़ालिम है,
है नींद मेरी लंबी या रात कटती मद्धिम है,
हूं खफा किसी से और, या खुदसे उलझ रहा हूँ,
क्या इतना सुलझा हूँ की सब खेल रहे है,
या इतना हूँ जटिल की बस मैं समझ रहा हूँ,
क्यों मेरे सपने बस मुझको रातों को आते,
क्यों दिन के घंटे सबको सोच सोच कट जाते,
क्यों सुबह का सूरज देखे गुजर गया एक अरसा,
क्यों मेघ हंसी का छोड़ छत मेरी सब पर बरसा,
क्यों हर पल घेरे रहतीं हैं सबकी आशाएं,
क्यों कोई नही जो मेरी भी सुने पास में आये,
मैं कोशिश करके सबका कंधा बन जाता हूँ,
फिर क्यों जब मैं लड़खड़ाऊं तो गिर जाता हूँ,
वो बाज की जिसकी नज़र कहीं और कोई निशाना,
हे सुनो आईने तुम ही मेरी सुनते जाना,
मैं कित्ता भी कह डालूं ये कित्ता ही समझेंगे,
मैं कोई भी सच लिख दूं सब कविता ही समझेंगे।