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और पा के मैं खोया किया

और पा के मैं खोया किया

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फिर "शौक़" अपनी बदगुमानी पे मैं रोया किया,

पाया उसे हर पल, और पा के मैं खोया किया...


यूँ देखती है नज़र जैसे है ये मरकज़-ए-नौ,

पहली दफ़ा उसने सितम मुझ पे गोया किया...


एक-एक अश्क़ की थी क़ीमत तेरा हर एक ग़म,

बड़ी शिद्दत से इसे सुब्ह-ए-मिज़गाँ में पिरोया किया...


बाद मुद्दत के ख़्वाबों में तेरा दीदार किया,

तशब उठ के देखा तुझे, और फिर मैं सोया किया...


फिर से आज मैं यूँ बेग़ाना-ए-होश हो गया हूँ,

फिर दिल-ए-नादाँ आज तेरे ख़्वाब संजोया किया...


रुक-रुक के बहा वो एक अश्क़ तेरी याद में और,

बह के तारूह मुझे फिर वो सरापा भिगोया किया...


बारहा आया ये भी, वक़्त मुझ तीराह-बख़्त पर,

ख़ून-ए-जिग़र बहाने को सीने में मैं ख़ंजर चुभोया किया...


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