बहू
बहू
जो हँसती थी उन्मुक्त,
मौक़ा देख मुस्कुराती है,
गीत गूँजते थे अल्हड़ जो
दबे होंठ गुनगुनाती है।
कभी आँचल की परवाह ना की,
अब सरकता नहीं नींद में भी,
विरोध करती थी हर बात का जो,
बस एक बार में दे देती है सहमति।
'जाती हूँ' कह के निकल जाती थी,
रुकना कब उसने सीखा था,
अपने माता पिता से मिलने को,
आवेदन देती है, लेती आज्ञा।
सवेरे जागती तो सिर्फ़ परीक्षाओं में,
माँ की बीमारी में थी देखती घर बस,
अब आँख स्वयं ही खुल जाती है,
अरुचिकर में ढूँढती है रस।
टेढ़ी रोटियों पे होती थीं तारीफ़े,
परिणाम देख माँ फूली नहीं समाती है,
परंतु छोटी सी ग़लतियों से भी,
हँसी का पात्र अब बन जाती है।
अशर्त प्रेम का ऐसा घेरा,
आचरण से बाल भी बाँका ना हो,
ना धारणा का भय ना आरोपों का,
अविभाज्य, किसी रेशम का टाँका ना हो !
थे कर्तव्य कम और थे अधिकार अधिक,
ऐसा जन्म से माहौल उसने पाया था,
तुम्हारे प्रेम में स्वयं को कुछ ऐसे बदला,
उसने अस्तित्व ही को दाव पे लगाया था।
ऐसा नहीं कि प्रेम या परिवार नहीं,
बस निर्णय लेने का है अधिकार नहीं,
अपेक्षाओं की पूर्ति पे निर्भर है स्नेह,
आक्षेप कोई किसी को स्वीकार नहीं।
बेटे की उपेक्षा का कारण वो,
कलह क्लेश की जन्म दाता है,
घर की राजकुमारी सोचती है अब,
घर बदलने से चरित्र बदल जाता है ?
क्यों टूट के रोयी थी माँ विदाई में,
'वहाँ नहीं चलेगा' कहती थी,
अपने कलेजे के टुकड़े को,
विलासिता यूँ ही दिए रहती थी।
हृदय जीतने को होती रही परिवर्तित,
विशुद्ध प्रयास से भी क्या दूरी मिट पाएगी ?
प्रश्न है कि क्या कुछ भी कर लेने से,
बहू बेटी बन जाएगी ?