बाल मज़दूर
बाल मज़दूर
बालमन की अबोध चंचलता
जठराग्नि के नीचे कहीं दबी थी !
कांधे पर उसके मैले का थैला नहीं
ज़िंदगी की मजबूरियां ही टंगी थीं !!
वो भी चाहता था,
ख़ूबसूरत खिलौनों से खेलना,
जाना स्कूल, रंग बिरंगे चित्रों-अक्षरों से सजी
किताबें पढ़ना,
मगर ! छोटी बहन की आंखों की नमी,
उसके मन मस्तिष्क में जमी थी !!
उसका भी होता था मन,
पेट भर स्वादिष्ट भोजन करने का
हर रोज़ नए रंग बिरंगे
कपड़े पहनने का मगर,
ठिठुरती बीमार माँ की
खांसी उसने रात भर सुनी थी !!
सपने थे उसकी भी आंखों में,
उन्मुक्त हो गगन में उड़ने के,
दुनिया की हर ख़ुशी, हर मंज़िल को
मुट्ठी में कैद कर लेने के,
मगर अनाज के वो ख़ाली डिब्बे
परिवार केे तन पर वो फटे हुए चीथड़े !
छोटे भाइयों के भूख से व्याकुल चेहरे !
जर्जर ज़िंदगी,
रोड़े बन उसकी राह में खड़ी थी !!
कांधे पर उसके मैले का थैला नहीं
हां....
ज़िंदगी की मजबूरियां ही टंगी थीं !
जिंदगी की मजबूरियां ही टंगी थीं....