बेवजह तो नहीं
बेवजह तो नहीं
जाती हो तो सुनती जाओ
जब तुम चेहरे बनाकर मुझे चिड़ाती हो
जब अपनी फूंक से मुझपर कुछ लिखती हो
जब अपनी अध्खुली आंखो मे मुझपर झांक कर काज़ल लगाती हो ,
अपनी बिन्दी मुझपर चिप्काकर मेरा शृंगार करती हो,
तब भी मै पूछना चाहता था इस बदलाव की वजह,
दखल नही देना था, बस फिक्र थी तुम्हारी
पर जाना भी कम्बख्त तब,
जब तुम्हारे आंसू से मैं भींग गया
और इससे पहले की मै तुम्हे बता पाता की
ये आँसू तुमपर नहीं भाते,
तुमने मुझे उठाकर फेंक दिया ,
दर्द उस चोट से नही हुई , सुन लो
मुझपर पैर रखने से तुम्हारी निकलती आंह से हुई
क्योकिं उसमे एक "अंजान" नाम था,
"ये आईने के टुकडे ने खुद को समेटती झाडू से बोला वो आईना जो कभी " माँ " लेकर आयी थी, उसके बाल संवारने !