मैं ढ़लते सूरज की छोटी सी किरण
मैं ढ़लते सूरज की छोटी सी किरण
~१~
मैं तो ढ़लते सूरज की छोटी सी किरण..
ढ़ल जाऊंगी थोड़े ही समय में...
मुझसे कैसे बैर, शत्रुता तुम्हारा ?
मर जाने से पहले क्यों मारते हो ?
खत्म होनेसे पहले खत्म क्यों करते हो ?
~२~
क्या कसूर था मेरा ?
छोटे भाई बहन मान रही थी ..
दीदी बोलो बोल रही थी ..
क्या यही मेरी भूल थी ?
~३~
बड़ी बहन को ये हक नहीं ..
छोटे भाई बहन से बड़े होके ,
कुछ कह सके ,,,
हाँ मानती हूँ अब तुम सब,
बहुत बड़े हो चुके हो..
माफ़ कर दो अब ..
नहीं बनूँगी तुम्हारी कोई बड़ी दीदी ।।
~४~
मैं जीने की कोशिश कर रही हूँ ..
दुःख के सागर से बाहर कैसे आऊँ ?
तैरना ना जानूँ मैं फिरभी ..
तैरने की कोशिश में लगी हूँ ..
हँसती रहती हूँ , कोई आसूं ना निकले ..
आसूं जो बहेगा तो मैं " मैं " ना रहूंगी ।।
~५~
सबको कुछ नया सोच दे जाऊं ,
ईमान से विवेक जाग्रत कर सकूं ,
इस नेक कोशिश को थप्पड़ लगाया जो तुमने ..
तो पीड़ा तो होनी ही थी ...
अच्छा हुआ जो आगे का रास्ता दिखा दीया
~६~
लेकिन ये जमाना इतना अंधा बहरा है , कि ,,
किसी की पीड़ा उनको मज़ाक लगता है ।
मानो जैसे कोई मज़ेदार घटना हो ।।
~७~
यार ये बहुत हँसती क्यों हैं ?
कैसे इसे रुलाया जाये ?
जलन होती है इसकी हँसी से...
कैसे इसे चुप कराया जाये ?
तुम बेफिक्र रहो अब मैं चुप हो जाती हूँ
तुम्हारा मैदान है ये अब
खेलो जितना चाहे ख़ुशी से
~८~
खो दी तुम सब ने क्या ?
ये ना समझोगे कभी ..
दिल दिमाग मन साफ़ है जीनके ,,
हूँ मैं उन्हीं की बड़ी बहन ।।
~९~
तकलीफ मेरी और बढ़ाया बहुत तूने ...
फ़िर भी ईश्वर है ,रहेंगे साथ मेरे ..
आभारी हूँ दो तीन भाई बहन जो मिले मुझे ..
कभी किसी से वादा , छलावा ना करो तुम ..
विवेक-हीन मनुष्य से अब कैसा रिश्ता ??
( © धरित्री मल्लिक् )