कभी यूँ ही
कभी यूँ ही
ज़ेहन में कौंध गईं स्मृतियाँ
वही सोलहवें साल वाली
जब तुम! एक चित्रलिपि-सी
जब तुम! एक बीजक मन्त्र-सी
जब तुम! अबूझ पहेली थीं
जब पत्तियाँ थीं फूल थे
पर सिर्फ़ मैं नहीं था
तुम्हारी नोटबुक में
चकित विस्मित दरीचों की ओट से
पढ़ता तुम्हारा लिखा
विस्फारित नेत्रों से तलाशता अपना नाम
कहीं न था नोटबुक में जो उसे ही पढ़ने की ज़िद!
कभी यूँ भी
मेरे अवचेतन में प्रतिध्वनि थी मेरी ही आवाज़ की
जबकि, नदारद था तुम्हारा उच्चारा मेरा नाम
मुझे लगा
जैसे कोयल कूकने को राजी न थी
जैसे तुम्हारा अनिंद्य सौंदर्य रुग्ण हो
जैसे पानी में उतरी परछाईं जो डूब गई हो
मुझे बिठा कर किनारे पर लौट जाने के लिऐ...