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माँ

माँ

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यूँ तो शब्दों की कमी ना थी,

मेरे शब्दकोष के उपवन में

पर तुम पर कुछ लिख पाने का,

आत्मविश्वास ना था मेरे मन में


कुछ लिख पाने को समर्पण भी,

एक त्याग कहलाता है

पर तुम पर मैं कुछ लिख सकूँ अभी,

इतना कहाँँ मुझे आता है !


जब पूछा मैने उस रब से,

क्यूँँ इतना मुझसे तू दूर है

क्या गुनाह खता है मेरी,

क्या अनजाना - सा कुसूर है


मुस्कुरा कर जवाब दिया मुझे,

दुनिया मे यही दस्तूर है

हर घर मे है जो माँ,

वो मेरा ही तो नूर है


माँ की ज़रूरत होती है मुझको भी,

जब भी धरा पे आता हूँ

माँ की ममता ही है वजह वो,

जो मैं भी इंसान बनना चाहता हूँ


रब बनकर भी ना मैं खुश हूँ,

ना मुझ संग माँ का प्यार है

खुशकिस्मत है तू रे बंदे,

जो तुझ संग माँ का दुलार है


वाह रे खुदा मैं माना तुझको,

मान गया हूँ मैं तेरी खुदाई

चमत्कारी है ये तेरी रचना,

जो ममता की मूरत ये तूने बनाई


इंसान बनके भी मैने ना जाना,

छवि को ममता के स्वरूप की

सारा जहान है जिसके कदमो में,

सारी खुदाई के एक रूप की


इस जहाँ में हर एक माँ,

तेरा ही अवतार है

दिल दुखाऊं जो मैं माँ का,

तो खुद पे ही दुत्कार है


हर ग़लती मेरी माफ़ की है माँ तुमने,

एक इसको भी तुम भुला देना

इस कविता को एक सारांश समझ कर,

सीने से लगा लेना


लिखने का ना ज्ञान है मुझको,

ना इतनी मुझमें क्षमता है

रब से ऊँचा तुम्हारा ओहदा

हर दुआ से ऊँची ममता है


कुछ लिख पाने को समर्पण भी,

एक त्याग कहलाता है

पर तुम पर मैं कुछ लिख सकूँ अभी,

इतना कहाँ मुझे आता है !


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