इश्क़
इश्क़
तेरे इश्क़ का नशा छाया इस कदर
तू ही तू दिखे, देखू मैं जिधर।।
तू ही खुदा, तू ही महिरू
तू पहली और आखरी आरज़ू
तू पहली बारिश, तू ठण्ड की सुबह
तेरी निगाहे नशीली, मैं इनमे डूबा
तेरे याद मे गुज़रा हरेक पल
तेरा एहसान मानता है।
जो तू है तो मैं भी हूँ
तेरे बगैर ये दिल भी कहाँ
धड़कना जानता है।
लोग मुझे अब पागल समझते है
शायद यह सही भी है
बेवजह बादल भी कहाँ बरसते है।।
एक तेरे नाम के सिवा मुझे,
कुछ और याद नही रहता है।
शमा में जल कर ही मानेगा,
बस यही ये परवाना कहता है।।
तेरे बगैर जीना भी सजा लगता है,
फिर भी जीना पड़ेगा मुझे,
एक तरफ़ा इश्क़ मज़ा सा लगता है।।
आज ना सही , फिर कभी शायद
हम तुम कही कभी किसी मोड़ पर
किसी गली मे, या पार्क मे मिल जाये
ज़िन्दगी की किताब के जो पन्ने बंद है
वो शायद फिर से तब खुल जाए
शायद तुम् तब तक बूढी हो जाओ
मैं भी इस जवानी से हाथ धो जाऊ
तब मैं तुम्हारी छड़ी चुरा कर भागूंगा
तेरी एक मुस्कान की ख़ातिर गुब्बारे भी लाऊंगा
इश्क़ का कोई उम्र या ज़माना नही होता है
लोग मुझे पागल कहे पर यह दिल
ज़माने को दीवाना कहता है।।