साहित्य
साहित्य
प्रमाद और प्रहसन ही तो,
होता है साहित्य नहीं !
ज्वलंत प्रश्नों पर लिखना,
क्या साहित्य का अंग नहीं !
मौन हो जो इस पर कलम,
कैसे युग का नवनिर्माण हो !
समाज को राह दिखाना,
क्या साहित्य का धर्म नहीं !
भक्ति काल के स्वर्णिम युग का,
अलख जगे, पुनः शंखनाद हो !
मीरा,तुलसी, सूर रसखान,
धरा पर पुनःअवतरण हो !
अहम् के अभिमान में,
सत्य आज तार-तार हो रहा !
बिलख रहा है सत्य आज
झूठ का बोलबाला है !
लगता है कल का सूरज,
सत्य अब देखेगा नहीं !
इस समर में फिर आज,
एक दावानल सुलग रहा !
सत्य की मशाल
सदैव दैदिप्यमान हो !
कल हम हो या न हो,
यह सदैव जलती रहे !