अरे ओ मज़दूर
अरे ओ मज़दूर
कवयित्री --पूनम श्रीवास्तव
अरे मज़दूर, अरे मज़दूर
तुम्हीं से है दुनिया का नूर
फ़िर क्यों तुम इतने मजबूर।
अपने हाथों के गट्ठों से
रचते तुम हो सबका बसेरा
पर हाय तुम्हें सोने को तो बस
मिला एक है खुला आसमां
अरे मज़दूर, अरे मज़दूर।
तुम हो क्यों इतने मजबूर।
बारिश, धूप कड़ी सर्दी में
तन पर वही पुरानी कथरी
बुन-बुनकर दूजों के कपड़े
बुझती है नयनों की ज्योति
अरे मज़दूर, अरे मज़दूर।
तुम हो क्यों इतने मजबूर।
अनाज भरे बोरे ढो-ढो कर
भरते जाने कितने गोदाम
फ़िर भी दोनो वक्त की रोटी
तुम्हीं को क्यूं ना होती नसीब
अरे मज़दूर,अरे मज़दूर।
तुम हो क्यों इतने मजबूर।