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हर शख्स यहाँ

हर शख्स यहाँ

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बहुत संजीदा रहता है हर शख्स यहाँ 

ज़ुल्म ज़ज्बात पे करता है, हर शख्स यहाँ।

दिन गुजर जाता है, कट जाती है रात भी 

थोड़ा जीने को थोड़ा मरता है हर शख्स यहाँ।

जुबां हिलती है उसकी, जरा भटकती भी है 

क्या कहूँ मैं, ये कहता है, है हर शख्स यहाँ।

फ़कत उम्र जो पैमाना रहा जिन्दा रहने का 

हर दिन ही ज़रा घटता है, हर शख्स यहाँ।

छीन लेता है ये हुक्मरां गर खुश जो दीखो 

जो हँसना है थोड़ा रोता है, हर शख्स यहाँ।

अपने पैसे पे पाबन्दी, खाने पीने पे पाबन्दी 

न पूछो क्या क्या सहता है, हर शख्स यहाँ।

माँ-बाप ,बहन-भाई , बड़ा-छोटा, खरा-खोटा 

कितने हिस्सों में ही बँटता है, हर शख्स यहाँ।

अपने खुदा को अंदर ही रखता है छुपाकर 

खुद अपने से ही बचता है, हर शख्स यहाँ।

इस दुनिया से जोड़ा था जिन लोगों ने उसको 

अब उनसे ही ज़रा कटता है, हर शख्स यहाँ।


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