ये दौर
ये दौर
ये दौर है जो,
अजीबो-गरीब कश्मकश का दौर है ये|
इस दौर में सब सूरज से शीतलता चाहते हैं,
भरी रात में चाँद को जलता चाहते हैं|
खेती से दूर रहकर अनाज चाहते हैं,
बचाना नहीं है पर, पानी सब साफ़ चाहते हैं|
जंगल मुड़ाकर, कंक्रीटके जंगल बढ़ाकर
साफ़ हवा पर ये सबको कोसना चाहते हैं|
कुछ तो सोचो इस दौर के लोगों,
क्या देकर जाओगे अपनी आने वाली नस्लों को?
कुछ सोचो, कुछ समझो, कुछ समझाओ,
आने वाली नस्लों को बर्बादी के रास्ते पर छोड़ मत जाओ|
जहाँ न पानी अच्छा है, ना ही हवा साफ़ है,
कुछ भी तो नहीं छोड़ा है तुमने,
भाषा, गीत, ग़जल, कविता हो या संस्कार|
या तुम चाहते हो ये झेले वो समय,
जहाँ आखिरी क्षण में बचाना हो सब-कुछ,
पर कुछ भी बचा न पायें ये आने वाली नस्लें|