ग़ज़ल
ग़ज़ल
जब आप थे सामने मेरे, दीदार अच्छा लगता था,
गुफ्तगू की उल्फत नहीं, दीदार अच्छा लगता था।
भाते थे आप ख़ूब मुझे, नज़रों के खेल में प्रिए !
गुलशन-ए-गुलिस्तां आप बिना, फिजूल सा लगता था।
कुछ कह नहीं सकते थे, दुनिया की भीड़ में,
तुझे देख के मुस्कुराना, दिल को सुकूँ लगता था।
आपकी ये नज़रों से तो, हम बच ना सके थे
देख आपको छुप जाना, मासूम सा लगता था।
कहते है जिसे चाहत, वो मंजिल बन गए थे
बस आप में खो जाना, दिल का सुकून होता था।
जब आप थे सामने मेरे, दीदार अच्छा लगता था
गुफ्तगू की उल्फत नहीं, दीदार अच्छा लगता था।