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परिस्थितियाँ और बहादुर ...

परिस्थितियाँ और बहादुर ...

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उन्होंने बड़े प्यार से कहा -

'तुम बहुत बहादुर हो "

चेहरे पे मुस्कान उतर आई

वर्षों की परिस्थितियों ने ली अंगड़ाई

और मैंने खुद का मुआयना किया ...


मैं एक डरपोक लड़की

माँ की चूड़ियों में ऊँगली फंसाकर सोती थी

ताकि जब भूत मुझे पकड़ने आए

तो माँ की चूड़ियों में फंसी ऊँगली

माँ को जगा जाए

और मैं बच जाऊँ ....


बेवकूफ सोच ...,

पर डर ही इतना प्रबल था !

सब दिन होत न एक समान '

मेरे भी नहीं रहे .....


भूत तो नहीं मिला

हाँ भूत की शक्ल में आदमी मिले

बोलते तो लगता कह रहे हैं -

'कच कच कच कच कच्चे खाँव '

माँ की चूड़ियाँ बहुत दूर थीं

तो कहा -

'जाको राखे साइयां मार सके न कोय '


पर कहते हुए

सरकती रात में दिल धड़कता रहा

कच्चे खाँव के खा जाने का भय

साथ साथ चलता रहा ...


कई दोराहे , चौराहे मिले

पार कर गई ...

मैं मजबूत होती गई या खाली

इससे परे ज़िन्दगी जीती गई !

जब कभी आँखें छलछलायीं


सुना - "अरे तुम तो बहुत बहादुर हो ..."

कहनेवालों की नियत गलत नहीं थी

हाँ , सुनकर मैंने खुद को टटोला

क्या यह सच है

कि मैं बहुत बहादुर हूँ

या चलती साँसों के मध्य परिस्थितियों को

बाएं दायें चलकर जीती गई ...


पता नहीं - सच क्या है !

जो भी हो -

कभी खुद पे इतराई

कभी आईने में खुद से पूछा

' तुम बहादुर हो ?'

सिलसिला जारी है .....


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