कन्या-भ्रूण की व्यथा
कन्या-भ्रूण की व्यथा
“ कन्या-भ्रूण की व्यथा “
तिमिरलोक, ये जलमंडल है ,मैं जिस घर में सोई हूँ ।
धड़कन सुनती रहती हूँ , सुंदर सपनों में खोई हूँ ।
मैं मम्मी जैसी लगती या पापा की राजदुलारी हूँ ।
मैं ही तो हूँ जो उनके,सूने आँगन की फुलवारी हूँ ।
दुनिया में जब मैं आऊँगी तो, मम्मी-पापा देखूँगी ।
भैया, दीदी , दादी,नानी और चाची-चाचा देखूँगी ।
सब कितना अच्छा है ना, मैं अपने घर में लेटी हूँ ।
कहते हैं दुनिया बुरी बहुत, देखो ज़िंदा हूँ! बेटी हूँ!
इक रोज़ सुना मैंने देखो, मुझको बेटे की आशा है ।
बेटा ही मेरे वंशबीज की , पूर्णसत्य परिभाषा है ।
जाने कैसी बात चली, क्यूँ रार हुआ फिर पापा से ।
मम्मी थक के बैठ गयी, हामी भर घोर निराशा से ।
दिल की धड़कन तेज़ हुई,मेरा तन मुझ पर बोझ हुआ ।
पता नहीं क्यूँ मम्मी पापा को , ना कुछ संकोच हुआ ।
मेरे सारे सुंदर सपने अब, मुझसे नाता तोड़ गऐ ।
भैया-दीदी,दादी-नानी , मुझको मरने को छोड़ गऐ ।
वो मेरा अंतिम दिन था, मैं सुंदर सपनों में खोई थी ।
जब मेरा हश्र निकट आया, मैं पापा-पापा रोई थी ।
मेरी दुनिया जलमग्न नहीं थी, पूरी सूखी-सूखी थी ।
वो कालस्वरूपा कैंची अब, मेरे उस तन की भूखी थी ।
जकडा पैर दर्द से चीखी, तुमको याद किया पापा ।
मेरी अदनी पायल का सपना, क्यूँ बर्बाद किया पापा ।
बस कंगन वाले हाथ बचे , बेपैर हो गयी थी पापा ।
मम्मी के अंदर मैं , अंगों का ढेर हो गयी थी पापा ।
हाथों को मेरे काट-पीट, कैंची गर्दन पर आन टिकी ।
रो-रोकर चीखें मार रही थी, बेटी तेरी कटी – पिटी ।
मेरी गर्दन को काट रही कैंची,मैं लेकिन ज़िन्दा थी ।
ना शर्मसार मम्मी-पापा , ना मानवता शर्मिंदा थी ।