शीशे के मकान
शीशे के मकान
घर केवल वो,
मकान न था,
वो गूँज थी,
वो आराम भी था ।
आप न थे,
था मैं भी नहीं,
हमारा सारा,
जहां-सा था ।
फ़िर ये शीशे,
सब क्यों तोड़ दिये,
चुभने जो आपके,
पैरों में लगे,
अखरते भी होंगे,
आँखों को ।
हमसे तो,
न ही पूछें जनाब,
हमारे तो,
दिल ही में दिये,
इन टुकड़ों ने,
घाव बना ।