एक पैगाम माँ तेरे नाम
एक पैगाम माँ तेरे नाम
एक पैगाम माँ तेरे नाम
जो राह चुन ली है मैंने
उससे ना कभी वापिस आना होगा
चाहकर भी लौट आना असंभव होगा।
वैसे तो माँ मेरे मार्ग में न होगी कोई छाँव
न कोई पेड़ होगा
पेड़ हुआ तो अकेला नहीं, जंगल बाढ़-सा होगा।
भय है न खो जाऊँ
इस जंगल के अनंत अंधकार में
गुमसुम, सहमे पेड़ों के नगर में
ढूंढना मुश्किल घर की राह होगा।
राह में न मिलेंगे, तुझ जैसे सहज लोग माँ
कदम रखते ही साँप डसेंगे
हर दिशा मौत का खौफ होगा।
ज्यों ज्यों रोशनी मुझसे बिछड़ती जाए
त्यों त्यों मेरा पत्थर सदृश हृदय भी घबराए
कि अब शायद ही कभी तुझे देख पाऊँ
जो राह पकड़ ली है माँ मैंने
उससे ना वापिस आना होगा।
ज्वाला सी लौ दिखती तो है
मगर रिसते हौसले से उजाला नहीं मिलता
फिर भी चल रहा हूँ मैं निरंतर, माँ
मंजिल तक तो मुझे जाना ही होगा।
एक पैगाम माँ तेरे नाम
जो राह है कदमों तले
उससे ना वापिस आना होगा।
मंजिल ना मिलने का दर्द बुरा तो है
किंतु उससे भी बुरा है तुझे न देख पाना
इन आखिरी घड़ियों में गर
सर तू सहला देती माँ
ना लगता तब ये जंगल इतना घिनौना।
पर कुछ बद नसीबों को सुनने को मिलें
सिर्फ उल्लू की चीखें
और गीदड़ का रोना
माँ इस बदरूहे जंगल में मुझे
घर की राह दिखाए कौन।
एक पैगाम तेरे नाम माँ
टूटी साँसों में अटका हुआ
माँ तेरे आँचल की बाट जोहता हुआ।