नदी
नदी
मैं नदी
निरन्तर बहती हूँ
बिना रुके,बिना थके
पल पल मंजिल को चलती हूँ।
सूर्य का ताप
जब बढ़ जाता
मैं झील, झरना,
हिमनद से निकलती
मार्ग मेरा सुगम नहीं
चलना स्वाभाव उद्गम से ही
सदानीरा, बरसाती
मैं बहती जाती हूँ।
चट्टानों से टकराती हूँ तो
कहीं गहरी खाई में
मैं बलखाके गिर जाती हूँ।
खेत खलिहान भर जाते है
सूखा कोई क्षेत्र ना बचता
जहाँ से मैं बहती जाती हूँ।
बहती अपनी प्रवाह में
निर्झरी सरिता हूँ मैं
कल कल करते गाती हूँ।
जन्म से लेकर
समुंद्र में मिलते तक
मैं चाव से बहते जाती हूँ।
मैं नदी नहीं बस
संस्कृति की पहचान भी हूँ
पापनाशिनी, मोक्षदायिनी,
तारिणी हूँ।
गंगा, नर्मदा नाम अनेक
युगों युगों से इस धरती में
मुझे पूजते मां के रूप में।
मुझ बिन व्यर्थ हो जीवन सबका
अध्यात्म से विज्ञान तक
हर सृजन में साथ हूँ।
पेड़, पौधे, पशु,पक्षी सबको
शरण मे जो आया उन्हें
पिलाते पानी बहते जाती हूँ।
निज स्वार्थों में डूबा मनुज
कचरों का कहीं ढेर कहीं तो
मोक्ष के नाम पर लाशें बिछाता है।
धर्म, कर्म के नाम पर
मैला आँचल कर जाते हैं
अब आसुंओं के संग बहते जाती हूं।
साहिल में सिमटी ना समझो मुझको
क्रोध में उफनती धारा हूँ
मैं नदी निरन्तर बहते जाती हूँ।