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|| सुनो श्यामली ||

|| सुनो श्यामली ||

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न जाने तुम

कब और कैसे समाईं मुझमें

एक छोटी सी चिंगारी की मानिंद

और आज धधक रही हो

जैसे जाड़े में कोई अलाव

और मैं सुलग रहा हूँ

इस मीठी गहरी आँच में

उस गीली लकड़ी सा

जो न जल पा रही है

न ही बुझने को राज़ी

मोम सा पिघलता मेरा वजूद

मिटता जा रहा धीरे धीरे

तुम्हारा प्रेम

अपने आवेग की तीव्रता से

मुझे सोखता जा रहा

स्याही सोखते सा

मैं विवश देखता जा रहा

तुम्हारा खोते जाना

मुझमे नही है हिम्मत

आँखों में आँखें डाल

कह सकूँ पूरी ताकत से

हाँ मैं तुम्हें चाहता हूँ

तुम्हारी पवित्रता

दीवार बन कर रोक रही मुझे

वे ख़त

जो मैंने रातों को जाग जाग

सबसे छिपा के लिखे हैं तुम्हें

कभी तुम्हें दे भी पाऊंगा

नहीं जानता

पर ये तो तय है श्यामली

तुम्हे चाहूँगा तमाम उम्र ऐसे ही

रोज़ पढूंगा अपने लिखे पत्र

और ख़यालों में तुम्हारा जवाब भी पा लूँगा

बस ऐसे ही जी लूँगा अपना प्रेम

एक उम्र तक

तुम्हें ऐसे ही चाहते हुए...

 


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