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इंसानियत कहाँ रही

इंसानियत कहाँ रही

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अब इंसान में इंसानियत कहाँ रही ।
सत्य की जगह झूठ,बैर की राहें पकड़ ली ।।
ना जाने कैसा युग आ गया है ये ।
जो इंसानियत ही इंसानियत को डँसती रही ।।
पागल कर दिया है सबको पैसे के मोह ने ।
जब से रिश्वत लेने की कला जगत में आई ।।
कहाँ रहा धर्म का वज़ूद इंसान में ।
राजनेताओं ने दुनिया जब मुठ्ठी में की ।।
गीता,बाइबिल,पुराणों को रख दो संदूक में ।
क्या फ़ायदा जब इंसान की इनमें रुचि नहीं रही ।।
बदल रहे इंसान बक्त के साथ ज़माने में ।
ना जाने ये दुनिया कब एक सी होगी ।।


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