"सुखिया"
"सुखिया"
नाम का केवल सुखिया था वो, दुःख से गहरा नाता था
और नहीं कुछ आता था, बस अन्न उगाना आता था
सुबह सवेरे उठ जाता था, खेतों में ही जुट जाता था
दिन भर अन्न उगाता था पर, रात को भूखा सो जाता था
जीवन भर बस लिए बैल को, खेतों में ही लगा रहा
बैल तो चलो बैल ही था, खुद भी बैल ही बना रहा
छोटा सा परिवार था उसका, घर में बीवी एक बच्ची थी
छप्पर भी चूता था उसका, दीवारें भी कच्ची थी
अबकी बार फसल बोने को, एक लाला से क़र्ज़ लिया
उसको क्या मालूम था उसने, जीवन भर का मर्ज़ लिया
आधी फसल ब्याज में जाती, आधी घर में खाने में
शेष नहीं कुछ बच पाता था, बेटी को पढ़ाने में
एक वर्ष आकाल पड़ा, खेतों में कुछ भी उगा नहीं
लाला का मूल नहीं दे पाया, सूद भी उससे चुका नहीं
बिक गये खेत लाला को ही, सुखिया इतना मजबूर हुआ
जिन खेतों का था मालिक वो, उन खेतों में मजदूर हुआ
सुखिया की रूठी किस्मत, इस घटना से फूट गयी
और कठिन हो गया समय, बेटी की पढ़ाई छूट गयी
जैसे जैसे दिन बीत रहे थे, बेटी बड़ी हो रही थी
शादी की समस्या सुखिया के, जीवन में खड़ी हो रही थी
जिससे भी बात बढ़ाता था, वो मांग बताने लगता था
लाखों की बातें करता था, सुखिया को डराने लगता था
घिस गयीं चप्पलें सुखिया की, अच्छा घर कोई मिला नहीं
बिन दहेज़ वर ले बेटी, ऐसा वर उसको मिला नहीं
इन बातों से विचलित होकर, उसने एक कदम उठा डाला
खुद आग लगाकर अपने को, अपना अस्तित्व मिटा डाला
सुखिया कैसे भर सकता था, बेटी की मांग दहेज़ से
मरा तो केवल बीस रुपये ही, निकले उसकी जेब से
परमाणु विस्फोट किया भारत, ने वर्ल्ड कप भी जीत गया
पर सुखिया का सारा जीवन, बिना हँसे ही बीत गया
मदिरालय जो खोल के बैठे, उनको सब कुछ माफ़ है
अन्न उगाने वाला भूखा? ये कैसा इन्साफ है
लोग कहेंगे मेरी कविता, घोर निराशावादी है
कवि का धर्म निभाया है, मैंने असलियत बता दी