वे लौटेंगे जैसे बेज़ुबानों की ज़ुबान
वे लौटेंगे जैसे बेज़ुबानों की ज़ुबान
वे लौटेंगे जैसे बेज़ुबानों की ज़ुबान
वे लौटेंगे, जैसे सुई में धागा
जैसे उनींदी आँखों में एक दिन सपने
जैसे चट्टानों को चीरते हुऐ एक दिन भरने पानी
जैसे बीज में अंकुरण और शब्दों में प्रस्फुटन
वे लौटेंगे, जैसे बच्चों की हँसी
जैसे चीटियों के लिऐ आता और शक्कर
जैसे अपनी विनम्र उपस्थिति से लौटते है हत्यारे
जैसे संगीत में शब्द और शब्दों में लौटती है कविता
वे लौटेंगे, जैसे यात्रियों में आत्मीयता
जैसे शाम होते ही घर की तरफ़ जंगल से लकड़हारे
जैसे कुछ ठिठकते हुऐ लौटता है घर-मालिक एक दिन
जैसे बाँसुरी में लौटती है कोई मूली बिसरी धुन
वे लौटेंगे, जैसे गिलास में पानी
जैसे पुकारती पुकार में कुछ जाना पहचाना-सा
जैसे किसी अज्ञात कवि की अज्ञात कविता में प्रलय और प्रेम
जैसे ख़ामोशी को चीरती हुई चीख हो कोई
वे लौटेंगे, जैसे चावल में कंकर
जैसे संवेदनाओं में लौटते हैं अहसास
जैसे अभी-अभी मरे किसी प्राणी के मृत शरीर में प्राण
जैसे पहले पृष्ठ की पहली ख़बर में मूल-सुधार
वे लौटेंगे, जैसे बेज़ुबानों की ज़ुबान