कबाड़
कबाड़
कुछ कबाड़ मैंने फिर रख लिया,
संभाल के,
क्योंकि वो कबाड़ नहीं था,
वो मेरी यादें थी।
कुछ कबाड़ मैंने फिर रख लिया,
संभाल के
इतने वर्ष मैंने काटे,
अपने जीवन के,
क्या उस थोड़े से कबाड़ पर,
मेरा हक़ नहीं ?
कुछ कबाड़ मैंने फिर रख लिया,
संभाल के
ये कबाड़ और कुछ नहीं,
सिवाय मोह के,
ज़िसे जाने-अंजाने,
मैं पालती चली गई।
कुछ कबाड़ मैंने फिर रख लिया,
संभाल के
अब भी मेरा दिल ऊबा नहीं,
रखा सब निकाल के,
फिर अचानक एक भूचाल,
और सब बह गया।
कुछ कबाड़ मैंने फिर रख लिया,
संभाल के
मैंने पागलों की भांति,
दौड़ के,
फिर चुन लिया,
थोड़ा और कबाड़।
कुछ कबाड़ मैंने फिर रख लिया,
संभाल के।