आत्मपरिचय
आत्मपरिचय
कस्तूरी मृग की भाँति
तेरे अंदर नीहित हूँ मैं।
देती हूँ बार-बार दस्तक
सोच कभी तो आवाज आएगी।
कभी तो होगा मुझसे मिलन तेरा।
पर अफसोस ! आवाज़ तो दूर आहट भी न आई।
आहट तो दूर चेतना भी न जागी।
कैसे कराऊँ मिलन तेरा मुझसे।
सोच-सोच मुरझा गई।
मैं और कोई नहीं ।
तेरा परिचय हूँ और सिर्फ आत्मपरिचय...।