उड़नछू
उड़नछू
प्रेम क्या है
इस प्रेम की जगह कहां है
जितना पूछता हूँ मैं ख़ुद से
उतना डूबता हूँ मैं ख़ुद में
औरों की तरह मुझमें भी कई
कमज़ोरियां हैंकुछ से नज़दीकियां
कइयों से दूरियां हैं
इस सवाल के बूते आत्मावलोकन कर सकूं
यह अच्छाई भी बहुत है
यह कमाई भी बहुत है
बाक़ी तो शैतानियां और बस शैतानियां हैं
भाषा की कारीगरी में शैतानी
धूप, हवा और पानी में शैतानी
उठे को गिराने में
गिरे को उठाने में शैतानी
दिल लगाने में
दिल को तोड़ जाने में शैतानी मंचों पर
सजे संवरे बार-बार दिखते
उन्हीं महान चेहरों की हँसी में शैतानी
संतों की धीमी-धीमी आती वाणी में शैतानी
आदिम और हौव्वा की हम संततियां
शैतान हावी है
हमारी चेतना और अवचेतना पर
मगर वहीं कहीं
प्रेम का खट्टा-मीठा स्वाद भी कायम है
हमारे होठों पर
प्रेम क्या है
और इसकी टीस कैसी होती है
क्या ख़ालिस स्मृति है प्रेम
या वर्तमान से कोई विस्मृति है प्रेम
दुनिया के भीतर रहती आई
कोई और नई दुनिया है प्रेम
क्या किसी को कभी जाने अंजाने
ठुकराने का पछतावा है प्रेम
किसी मासूम को गलत समझने का अपराध
या कि सत्य से लिपटा हुआ कोई छलावा है प्रेम
क्या ठहरा हुआ कोई पल है प्रेम
या बीता हुआ सुहाना कल है प्रेम
संग-संग तैरते हंसों के जोड़े को देख
हुलसनामन के ठहरे तालाब में कोई हलचल है प्रेम
मेरे पास आज सब कुछ है,
जिनसे मन मेरा बहल सकता है
मगर जो मन को संभाल सके,
ऐसा कोई नहीं मेरा
किसी ख़ास की उपस्थिति से गुलज़ार नहीं है मेरा आँगन
मैं हूँ मानो एक जलचर,
जो जल में भी बेचैन हुआ जाता है
ऊपर से चाहे जितना ही ख़ुश दिखता हो
भीतर ही भीतर परेशान रहा करता है
प्रेम क्या है
इसका असर कैसा है
किसी ठौर न रुके,
विस्तारित होता ऐसा कोई बहाव
ख़ुद की तरलता में डूबा हुआघर-घाटी को पाटता
पगडण्डी और सड़क को एक करता
बेचैन ज्यों कोई ब्रह्मपुत्र
हर ओर हाहाकार मचाता
विकल और बस विकल है प्रेम
जो वक्त के साथ भी बीत नहीं रहा
वो पुरानी प्रीत
जो जाकर भी जाता नहीं रहा
उम्र की गाँठ बढ़ती जाती है
हर गाँठ पर नया कोई फंदा कसता जाता है
जीवन किसी सौदागर सा धंधा करता जाता है
बीमारियों का सिलसिला अब थामे नहीं थमता
बाल सफ़ेद हुए,
चेहरा बदला जाता है
ज़िम्मेदारियां भी बढ़ गई हैं
फिर किस खिड़की से ताज़ा हवा का कोई झोंका आता है
कुछ देर के लिए ही सही,
घाव सारे भुला देता है
अतीत का चोर दरवाज़ा कोईसहसा खुल जाता है
फांक कोई आ जुड़ जाता है
छवि पुरानी मगर अपनी सी
क्यों बसी है अब तक मेरे ज़ेहन में
मैं उसे आज भी क्यों
कुंवारी कसक लिए याद करता हूँ
क्या प्रेम अनछुआ, सदाबहार कोई फल है
या फिर यह हमारी पाक बेचैनियों का ही
कोई हासिल है
प्रेम क्या है
इस प्रेम में दो, अद्वैत कैसे हो उठते हैं
क्यों बरबस याद आती हैं मुझे
स्कूल की वे छोटी छोटी बातें
जीवन ऋतु के पहले बसंत की वे मुलाकातें
प्रार्थना में हो पंक्तिबद्ध
आमने सामने खड़े दो किशोर शरीरों में
होतीं नामालूम सी वे हलचलें
जिनसे कभी दिक् दिगंत कांप उठते थे
जिनकी ख़ुशबू में दिन पल बन जाते थे
यूँ आमने-सामने हो खड़े
देर तक हम एक दूजे की आँखों में तकते थे
खेत से उठ सारे पीले सरसों मानो
बस उस प्रांगण में आ धमकते थे
दसबजिया और गुलाब
गेंदा और गुलदाऊदी
इन सबकी रंगत
हमारे रुखे गालों पर चढ़ इतराती थी
पूरी अंताक्षरी के दौरान
दसवीं क्लास में
लड़कों और लड़कियों की तरफ़ से
झुंड तो दो बनते थे
मगर सचमुच में
हम दो ही मैदान में डटे रहा करते थे
एक दूसरे को जीतने में
एक दूसरे को दिल दिए जाते थे
उत्तर प्रत्युत्तर के इस खेल में
पूरा स्कूल जमा हो जाता था
आकाश से देवता सभी
इस पावन घड़ी को देखने आ धमकते थे
चारों ओर एक मेला सा लग जाता था
मगर इन सबसे बेपरवाह
हम दो दीवाने अपनी ही धुन में
रमा करते थे,
मध्यांतर के दौरान मेरे बस्ते को
छूना और चूमना
फिर चुपके से
उन्हें ही चिढ़ाना
प्रेम में किशोर तन का यूँ
किसलय हो जाना
आज भी भुलाए नहीं भूलता,
अपनी कॉपी और किताबों पर
राधा, स्वयं को राधाकृष्ण लिख जाती थी
और हँसी-हँसी में
मुझ राधाकृष्ण को राधा बना जाती थी
वो राधा समय के मेले में
मुझसे जाने कब और कैसे खो गई
राधाकृष्ण, राधा के बगैर कुछ न था
मैं अकेला, हाँ अकेला हो गया
प्रेम क्या है
प्रेम का अभाव कैसा होता है
बोलते हैं मेरे छुट्टन काका
राधाकृष्ण मेरे,
'परेम' से ही यह यह संसार बचा है
'परेम' से ही यह संसार सजा है
इस 'परेम' में पड़कर कोई 'माँझी
किसी पहाड़ को काट जाता है
और कुछ मेरे जैसे होते हैं अभागे
जो प्रेम शून्य हो
पहाड़ सी अपनी ज़िंदगी यूँ ही काट देता
हछुट्टन काका की बातों में मुझे क्यों
अपनी कहानी याद आती है
ऐसा लगता है
मेरी कहानी,
उनकी ज़ुबानी कही जा रही है
बीत गया किशोर वय, जवानी बीती जा रही है
समय ने एकबारगी सब कुछ देकर
एक ही झटके में
मुझसे सब कुछ ले लिया
मुझे भी यह दौलत मिल गई थी
मैं भी मालामाल हो गया था
मगर फ़िर सब कुछ उड़न छू हो
गयहतभाग्य मैं, दिल मेरा धू-धू हो गया
मेरे पास बस प्रश्न यह शेष रह गया
प्रेम क्या है
प्रेम में पाना और फिर खोना
खेल यह पुराना कैसा है?