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शीर्षकहीन रचना

शीर्षकहीन रचना

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ऐसे तो सहज ही रहती हूँ
बड़ी सहजता से
बड़ी से बड़ी तकलीफ के क्षणों को
शब्दों में बाँध देती हूँ
लेकिन समानान्तर
प्रलाप करते मस्तिष्क के कोनों से
रेगिस्तानी आँखों से
शून्य में अटके वक़्त से
करती हूँ सवाल
क्या सचमुच इतना ही सहज
था सबकुछ ?
मासूम भयभीत आँखें
ममता के थरथराते पाँव
और गंदगी के ढेर पर
कोने में सिमटी उस लड़की की विवशता
जो मैंने देखी है
क्या उसका हिसाब-किताब इतना आसान है
कि जोड़-तोड़ से उसका हल निकाल दिया जाए !!!
....
हल तो हमने भी नहीं निकाला था
वीरान राहों पर
सपनों के अदृश्य दीये रखते हुए
हमने बस मान लिया था
कि हमने जीने का हल निकाल लिया है !
डरकर बुना हुआ हर दिन
झूठ पर अड़ा सत्य
कोई हल नहीं था
!!!
कितने सारे उपद्रव खड़े थे आगे
इससे जुझो तो दूसरा
दूसरे से निकलो तो तीसरा
लगता था रक्तबीज के रक्त बह रहे हैं !
मैं काली' का रूप लेना चाहती थी
पर शिव हमेशा मेरे आगे लेट गए !!
 
शिव के आगे आने का मान देना था
पर काली का आवेश ?
क्या सहज सरल था विरोध की आग को
अमृत की तरह पीना !
 
नहीं,
नहीं था सरल मीरा का विषपान
उनकी हँसी
साधुओं की मंडली में उनका सुधबुध खोना
मूर्ति में समाहित हो जाना  …
कथन की सहजता
जीने की विवशता में
बहुत विरोधाभास होता है


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