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जादुई बीज

जादुई बीज

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काश कहीं से मिल जाते कुछ जादुई बीज

रोप देती उन्हें छोटे छोटे गमलों में,

 

उगाती कुछ शहद के छत्ते

ताकि उनमें डुबो के,

मीठा कर सकूँ अपने

शब्दों की तल्ख़ी को,

जो उभर आती है

बार बार मेरी कविताओं में,

 

उगाती कुछ मरहम

जो लगाती मैं,

उन छोटे छोटे बच्चों के

कोमल तन और हाथों पे,

जहाँ तक़दीर के लकीरें

मिट गयीं मजबूरी में

घिस घिस के घरों के बर्तन,

 

 

उगाती सुन्दर रंग

और भर देती गंदगी से भरे,

समाज की काली बदसूरत तस्वीर

को प्यार और सद्भावना के

ख़ूबसूरत रंगों से,

 

उगाती कुछ ट्रंक

जिनमे बंद कर ताला लगा देती,

उन स्त्रियों के आँसुओं और चीखों को

जो उभर आती हैं बार बार,

मेरे ज़हन में लेकर अपने

दर्द के अनगिनत अफ़साने,

 

उगाती कुछ संस्कार

जो बाँट देती मैं समाज में,

ताकि दुःख , छलावे, तिरस्कार

और नारी के प्रति पशुता को,

मिल जाता एक सभ्य समाज

और थोड़ा रहम,

 

 

उगाती कुछ हँसी

जो चिपका देती मैं उन

बच्चियों के मासूम चेहरों पे,

जिसे छीन लिया कुछ दरिंदों ने

कुचल कर उनके शरीर और आत्मा को,

 

उगाती अपने लिए सुकून

जो देता मेरी कविताओं को,

प्यार का आवरण जो

ढँक लेता मेरी परेशानियों को,

जो होती हैं मुझे इन सब

समाज की उदासी को देख कर,

 

काश कहीं से मिल जाते कुछ जादुई बीज

रोप देती उन्हें छोटे छोटे गमलों में।।

 

                                      -प्रीति दक्ष

 


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