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AMIT KUMAR

Abstract

4.1  

AMIT KUMAR

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सफर कर परिंदे

सफर कर परिंदे

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वक्त के ये परिंदे बशर कर रहे,

छोड़ कर अपने घर को शहर में रहे,

रात दिन का सफर जो रहा उम्र भर,

रास्ते न मिले, और सफर कर रहे।


चंद पैसों की खातिर शहर को गए,

छोड़ा अपनों को भी दर्द दिल मे लिए,

पत्थरें तोड़कर की इमारत खड़ी,

पर मयस्सर हुई उनको बस झोपड़ी,

पेट भरने को बस कुछ निवाले रहे,

रास्ते न मिले, और सफर कर रहे।


जिंदगी बस गुजरती है सड़कों पे ही,

जंग लड़ते है वो पेट भरने को ही,

है जरूरत हमे तो बुलाते है हम,

ख्वाहिशें जो हमारी, मिटाते हैं हम,

गर जरूरत उन्हें तो वे ताकते रहे,

रास्ते न मिले और सफर कर रहे।


आज शहरों में जो भी तरक्की हुई,

ये ही कर्ता हैं जो कुछ बृद्धि हई,

पर अभी तक नहीं कोई संज्ञान है,

इनके हालत से सभी अंजान हैं,

ये तो सामान हैं, सारे समझे रहें,

रास्ते न मिले, और सफर कर रहे।


स्वार्थ का खेल ये जो है अब चल रहा,

है इमारत बहुत पर न अब घर रहा,

न भरोसा किसी को है इंसान पर,

सारे रिश्ते रहे अब तो बस नाम पर,

छोड़ कर निज वतन कूच करते रहे,

रास्ते न मिले और सफर कर रहे।


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