अनुबन्ध
अनुबन्ध
अनुबन्धों की धुंधली रेखा !
विधुजा बनकर तप्त हृदय पर
शीतलता का राग बुना था |
मनसिज सी कोमलता देकर,
स्वप्नों का आकाश चुना था..|
चिन्तन के उस पार बैठकर.
मैंने नभ को रोते देखा...
पथ में निर्लज कांटों ने मिल,
भेद दिया मन निर्ममता से |
आशाओं के फूल बिखेरे..
मसल दिये थे कायरता से |
उत्साहों से बढ़ते पग को..
बे-मन से तब हटते देखा..|
पथरीले पथ ऊँचे-ऊँचे,
विष्कण्टक बोते थे अपने |
जब जब चाहा बढ़ जाऊँगा,
रोक रहे थे पग को सपने |
कोशिश करके कदम बढ़ाया
लांघ न पाया लक्ष्मण-रेखा...|
कहते थे सब राह सरल है,
चलकर देखा कठिन डगर थी |
अनुबन्धों के ढुलक मौज पर..
अभिशापों की बड़ी लहर थी |
मैंने 'मन के हारे' मन को..
उस मन से फिर लड़ते देखा..|