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ग़ुरबत

ग़ुरबत

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ग़ुरबत से लाचार

होकर दफ़अतन आज,

"शौक़" दिल में

ये ख़याल मेरे आया,


क्यों न लगाएँ

बाज़ार वफ़ा का अपनी,

पर नज़र दुनिया में,

न कोई वफ़ादार आया...


फिर ये सोचा कि

ग़म भी तो अपने कम नहीं,

ग़म भी तो बिक जायेंगे

खंदा होठों को,

पर जब ग़मों ही को

निकले बेचने हम तो,

हर इक मोहसिन

नज़र ग़मख़्वार आया...


ख़्याल आया कि

चाहत की ज़रूरत होगी,

आखिर दुनिया में

आज आशिक़ हज़ारों हैं,

जब लगा के मजमा,

बेचनी हमने चाही,

नहीं चाहत का भी,

कोई ख़रीददार पाया...


यूँ चाहा कि अश्क़ों का

ही कर लें सौदा,

अश्क़ों का भी अपने,

कुछ तो मोल मिलेगा,

मगर अश्क़ों को भी

यहाँ बिकता न पाकर,

हमें रोना "शौक़"

सर-ए-बाज़ार आया...


कि ख़्वाबों को भी,

बेचने की बहुत कोशिश,

तो भी ये देखा,

कि बाज़ार खली पड़ा है,

बड़ी बेनियाज़ी से

लोग आकर ग़ुज़रे अक्सर,

न किसी नज़र में,

ताबीर-ए-ख़्वाब-ए-यार पाया...


आख़िर हार के हमने जब,

चलने का किया इरादा,

उस वक़्त मिला शख़्स एक,

और कहने लगा,

आता था इक शख़्स

बेचने ज़िन्दगी बाजार में,

क्या आज यहाँ नज़र

कहीं वो पर्दादार आया ?


तब ये सोचा कि

ज़िन्दगी बेचने में क्या हर्ज़ है,

इस तरह ग़ुरबत से तो

होगा छुटकारा अपना,

शुक्र है ख़ुदाया,

वफ़ा, ग़म, अश्क़,

ख्वाबों का नहीं,

ज़िन्दग़ी का तो अपनी

कोई ख़रीददार आया...!


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