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विस्थापित हुए लड़के

विस्थापित हुए लड़के

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लड़कियों से जुड़ी बहुत बातें होती हैं
कविताओं में
लेकिन नहीं दिखते हमें
दर्द या परेशानियों को जज़्ब करते
कुछ लड़के
जो घर से दूर, बहुत दूर
जीते हैं सिर्फ अपनों के लिए, अपनों के सपनों के साथ

वो लड़के नहीं होते भागे हुए
भगाए गए ज़रूर कहा जा सकता है उन्हें
क्योंकि घर छोड़ने के अंतिम पलों तक
वो सुबकते हैं,
माँ का पल्लू पकड़ कर कह उठते हैं
"नहीं जाना अम्मा
जी तो रहे हैं, तुम्हारे छाँव में
मत भेजो न, ऐसे परदेस
जबरदस्ती!"

पर, फिर भी
विस्थापन के अवश्यम्भावी दौर में
रूमानियत को दगा देते हुए
घर से निकलते हुए निहारते हैं दूर तलक
मैया को, ओसरा को
रिक्शे से जाते हुए
गर्दन अंत तक टेढ़ी कर
जैसे विदा होते समय करती है बेटियां
जैसे सीमा पर जा रहा हो सैनिक
समेटे रहते हैं कुछ चिट्ठियाँ
जिसमें 'महबूबा इन मेकिंग' ने भेजी थी कुछ फ़िल्मी शायरी

वो लड़के
घर छोड़ते ही, ट्रेन के डब्बे में बैठने के बाद
लेते हैं ज़ोर की सांस
और फिर भीतर तक अपने को समझा पाते हैं
अब उन्हें ख़ुद रखना होगा अपना ध्यान
फिर अपने बर्थ के नीचे बेडिंग सरका कर
थम्स अप की बोतल में भरे पानी की लेते हैं घूँट
पांच रूपये में चाय का एक कप खरीद कर
सुड़कते हैं ऐसे, जैसे हो चुके हों व्यस्क
करते हैं राजनीति पर बात,
खेल की दुनिया से इतर

कल तक,
हर बॉल पर बेवजह 'हाऊ इज देट' चिल्लाते रहने वाले
ये छोकरे घर से बाहर निकलते ही
चाहते हैं, उनके समझ का लोहा माने दुनिया
पर मासूमियत की धरोहर ऐसी कि घंटे भर में
डब्बे के बाथरूम में जाकर फफ़क पड़ते हैं
बुदबुदाते हैं, एक लड़की का नाम
मारते हैं मुक्का दरवाज़े पर

ये अकेले लड़के
मैया-बाबा से दूर,
रात को सोते हैं बल्व ऑन करके
रूम मेट से बनाते है बहाना
लेट नाइट रीडिंग का
सोते वक्त, बन्द पलकों में नहीं देखना चाहते
वो खास सपना
जो अम्मा-बाबा ने पकड़ाई थी पोटली में बांध के

आखिर करें भी तो क्या ये लड़के
महानगर की सड़कें
हर दिन करने लगती है गुस्ताखियाँ
बता देती है औकात, घर से बहुत दूर भटकते लड़के का सच
जो राजपथ के घास पर चित लेटे देख रहें हैं
डूबते सूरज की लालिमा

मेहनत और बचपन की किताबी बौद्धिकता छांटते हुए
साथ ही बेल्ट से दबाये अपने अहमियत की बुशर्ट
स को श कहते हुए देते हैं परिचय
करते हैं नाकाम कोशिश दुनिया जीतने की
पर हर दिन कहता है इंटरव्यूअर
'आई विल कॉल यु लेटर'
या हमने सेलेक्ट कर लिया किसी ओर को

हर नए दिन में
पानी की किल्लत को झेलते हुए
शर्ट बनियान धोते हुए, भींगे हाथों से
पोछ लेते हैं आंसुओं का नमक
क्योंकि घर में तो बादशाहत थी
फेंक देते थे शर्ट आलना पर

ये लड़के
मोबाइल पर बाबा को चहकते हुए बताते हैं
सड़कों की लंबाई
मेट्रों की सफाई
प्रधानमंत्री का स्वच्छता अभियान,
क्नॉट प्लेस के लहराते झंडे की करते हैं बखान
पर नहीं बता पाते कि पापा नहीं मिल पाई
अब तक नौकरी
या अम्मा, ऑमलेट बनाते हुए जल गई कोहनी

खैर, दिन बदलता है
आखिर दिख जाता है दम
मिलती है नौकरी, होते हैं पर्स में पैसे
जो फिर भी होते हैं बाबा के सपने से बेहद कम
हाँ नहीं मिलता वो प्यार और दुलार
जो बरसता था उन पर
पर ये ज़िद्दी लड़के
घर से ताज़िंदगी दूर रहकर भी
घर-गांव-चौक-डगर को जीते हैं हर पल

हाँ सच
ऐसे ही तो होते हैं लड़के
लड़कपन को तह कर तहों में दबा कर
पुरुषार्थ के लिए तैयार यकबयक
अचानक बड़े हो जाने की करते हैं कोशिश
और इन कोशिशों के बीच अकेलेपन में सुबक उठते हैं

मानों न
कुछ लड़के भी होते हैं
जो घर से दूर, बहुत दूर
जीते हैं सिर्फ अपनों के लिए अपनों के सपनों के साथ।


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