इस रात की सुबह नहीं
इस रात की सुबह नहीं
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घना अंधेरा - सा छाया था
सफेद पोशाक - सा साया
नज़र आया था !
लब सूखे,
लाली आँखों में उसकी
आँँसुओं का डेरा था !
चेहरे के शिकन पर उसके
सदियों का फेरा था !
मैं दरवाज़े
और वह आंंगन में खड़ा था...।
सनसनाती हवाएंं
कंपकंपाने - सी लगी थी
नीम के पतों को
चिढ़ाने - सी लगी थी
झड़ - झड़ के गिर से रहे थे
न जाने कहाँँ - कहाँँ बिखर भी रहे थे !
पलकें झपकी
शायद मेरी पलकों का ही दोष था
अब वह पत्तों को
बटोरने में लगा था !
गिनती बढ़ती ही जा रही थी
अंको का ढेर लग चुका था
और उसके शरीर का
हर एक अंग
थक चुका था !
बस उसके गिरने की देर थी
कि सोच तथ्य में तब्दील थी
वह शिकस्त खा
गिरा पड़ा था !
अंधेरा बढ़ता ही जा रहा था
रात और भी घनी होती जा थी
मानो,
इस रात की सुबह नहीं...!