ग़ज़ल
ग़ज़ल
उनकी दुरी हमें कितनी खलती रही,
जिनकी फुरकत में ये जान जलती रही।
सारी उनको बता दी हकीक़त मगर,
फिर भी चाहत हमें उनकी छलती रही।
कुछ इनायत उनकी हो इस जान पर,
ये ही चाहत मेरे दिल में पलती रही।
चाहा उनको सदा हमने जी जान से ,
बस तबियत ख़ुशी से मचलती रही।
जिनकी उल्फत में छूटा ये सारा जहां,
उनकी हसरत में रुह ये पिघलती रही।
इक सहारे पे जिंदा जो अरमान रहे,
याद में जिंदगी गम निगलती रही।
जैसे जैसे मोहब्बत उनसे बढ़ती गईं ,
हस्ती मासूम मेरी गम से घुलती रही।