जिन्दा लाशें!
जिन्दा लाशें!
हमने देखा हैं, लाशों को चार कांधे पे उठते हुए,
आज कैसे एक कमजोर कांधा उसे उठा रहा है।
या तो मेरी चकाचौंध आँखें धोखा खा रही हैं,
या उच्चतम मानवता का गला घोंटा जा रहा है।
या तो परम्परा बदल गई है, खूबसूरत इंसानियत की,
या फिर रिवाज बदल दिया, तूने लाशें उठाने का।
सुना था मोटरगाड़ी बना रखा है, जिन्दा लाश ढोने का,
लगता हैं पंचर हो गया हैं, टायर तेरी हमदर्दी का।
सुना था, जिन्दा लाशों की बड़ी सेवा करता है तू इन्साँ,
आज मरी लाशों को उठाने के लिए, तेरे कांधे कैसे कम पड़ गये ऐ बेरहम इन्साँ।
हमने देखा हैं, लाशों को चार कांधे पे उठते हुए,
आज कैसे! एक कमजोर कांधा उसे उठा रहा है।
वो तो जिन्दा ही मर गये, जब सहारा एक ना मिला,
अगर हाल यही रहा, तुझे भी माँझी बनना होगा एक दिन।
पर डर लगे मुझे, इस घटना से मेरे खोखले इन्साँ,
आज तो कम से कम लाशें कांधे पे उठाई तो जा रही हैं।
कल कहीं ऐसा न हो, तेरे इस अकड़ीले शरीर को,
जमीन पे घसीट घसीट कर,
गलियों के आवारा कुत्ते शमशान न पहुँचाएं।
हमने तो देखा हैं, लाशों को चार कांधे पे उठते हुए,
आज कैसे एक कमजोर कांधा उसे उठा रहा है।।