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कागज की कश्ती

कागज की कश्ती

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तृप्त धरती,

उल्लासित नदियां

विशाल प्रश्तर पटल

हरित, पुष्पित, प्रफुल्लित

वन-वृंद,

हवाओ संग अठखेलियाँ करते

वृक्षों की कतारें

इनके हास-परिहास को

सुनो,

ये मदमस्त हुए

जाते है

हे नर्मदे!

विशाल विस्तारित

पटल पर

मचलती

ये छोटी छोटी

नावें, तुम्हारी लहरों पर

नृत्य करती

जान पड़ती हैं,

छुटपन में जब

गदराए मेघ

बरसते, तो

अकस्मात ही

सागर, ताल, तलैया, नदियां

सब तो बन जाती

हमारे आस पास

अपनी छोटी सी

कैनी से खींच देते नहर

और एक नदी का जल

पहुंचा देते पोखर में।

कितनी ही हमारी

कागज की नावें

उन पोखर, तालाब,

नदी, सागर में उन्मुक्त

तैरती,

एक काला चीटा

पकड़

बिठा देते

अपना चौकन्ना नाविक,

वो व्याकुल त्राहिमाम

करता भागता

हमारी कश्तियों पर,

हमारी, खिलखिलाहट, तालियां

उसकी बेचैनी से अन्जान।

वो पोखर, ताल, तलैया

खो गये

खो गया बचपन,

आसमानी घरों के वासी

हो गए।


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