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Amit Mall

Abstract

3.5  

Amit Mall

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आदमी

आदमी

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आदमी कभी आदमी नहीं होता है 

कहीं उससे कम तो कहीं ख़ुदा होता है

पहुँचता है शमसान, कोख से निकलकर 

फिर भी सातों समंदर पार करता है आदमी

दो रोटी व दो गज़ ज़मीन ही कमाई है 

फिर भी सिकंदर बना फिरता है आदमी

अपने से रूबरू होने में कतराता है 

फिर भी लोगो से खुलकर मिलता है आदमी

दुःख और दुश्वारियों से जुझते निकलते 

आसूं की जात पूछता है आदमी


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