शहर
शहर
ना जाने कितनी
उम्मीदे रक्खे
हजारों आंखे
उनींदा
कर रहा है
शहर
रात दिन
भिन भिनाता है
मक्खियों जैसा
जिस्म थक जाते हैं
मगर जागता
रहता है
शहर
प्यास को प्यास
भूख को भूख
लड़ाती है
भिड़ाती है बहुत
गजब वाशिंदे हैं
तमाम मसाइल हैं
फिर भी चल रहा है
शहर
किताबी अधिकार
और उसपे बैठे
ऐंठे ये ओहदेदार
सारे अधिकार हैं
फिर भी
घुटा जाता है
शहर
नीड़ से कब उढे
चहकते परिन्दे
दाना-पानी छोड़
देहरियों ने यक-बा-यक
चहकना छोड़ा
मक्खियां हैं कि
अब भी भिन भिनाती हैं
भीगती आंख है
सारे रिश्ते सुखा गया यह
शहर