भोर
भोर
अभी ज़िन्दगी 'ढाई अक्षर' के
मायनों में ही उलझी सी है।
एक लम्बे अरसे से
तुम्हारी करनियों का
मुआयना कर रही हूँ मैं।
यही, हाँ यही एहसास
दिलाना चाहती हूँ तुम्हें मैं।
अब तक बैसाखियों से
चलन था मेरा
पर टाँगे अब डग मगा कर
चलना सीख सी रही है।
किसी सहारे की
या तुम्हारे हाथ की
जरुरत नहीं मुझे।
बस इतना
विश्वास दिलाना चाहती हूँ
तुम्हें मैं।
टिक-टिक करती
सुइयों के साथ
खो देना चाहती हूँ
तुम्हें मैं।
अर्थहीन तुम्हारी
छली बातों से निकलकर
आँखें उजियारी भोर
तलाश सी रही है।।