दिल
दिल
दिल से इक तड़प-सी निकलती है
कोई करुणा की नदी मुझमें बहती है
एक अहसास-सा मैं
जिन्दगी को जीता हूँ
जिन्दगी मुझमें समा
मेरे पाँव से चलती है
खुद का होना भी
इक बोझ-सा लगता है
फिर भी इक हल्का-सा सही
कोई अहंकार सा पलता है !!
उसके आगे सब समर्पण है
जो मुहब्बत से आँख भर देखे
इतना भी जो न अगर
खुद को मैं खुद में रखूं
मैं पिघल कर फिर
जमीं में गुम हो जाउंगा
आईने की तरह जी रहा हूँ मैं
फिर भी थोड़ा-सा भी
किसी को टोकूं
ना भी चाहूँ मैं अगर
थोड़ा मैं बाहर आ जाए है
मेरा होना तो खुदा की देन है यहाँ
मैं दूई में बस इसलिए हूँ
कि इससे उबरकर
उसमें एक हो जाऊं !!